आसत्य सरल होकर भी भयंकर क्यों?

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आचार्य प्रशांत: कठोपनिषद्, तृतीय वल्ली, श्लोक क्रमांक चौदह। "उपनिषद्कार कहते हैं कि सत्य छुरे की धार जैसा है,

सत्य तो निर्गुण है। उसके साथ कोई संज्ञा, कोई विशेषण, कोई उपाधि जोड़ी नहीं जा सकती। ये कहना कि उसे पाना आसान है, आखिरी बात नहीं हुई। ये कहना कि उसे पाना दुष्कर है, आखिरी बात नहीं हुई। ये सब तो बीच के वर्णन हैं, प्रसंगवश कह दिए गए, तुम्हारे संदर्भ में कह दिए गए। तुम जैसे हो, तुम्हें देखकर कह दिया गया, “आसान है।“ तुम जैसे हो, तुम्हें देखकर कह दिया गया, “कठिन है।“

ना आसान है, ना कठिन है, सत्य तो बस है। जो है, उससे तुम्हें यदि इनकार है, तो सत्य बहुत कठिन है, अज्ञेय है, कोई संभावना ही नहीं उस तक पहुँचने की। और जो है, उसका तुम्हें सहज स्वीकार है, तो फिर आसान कहना भी अतिशयोक्ति हो जाएगी।

तुमपर निर्भर करता है। छुरे की धार भी हो सकता है, और मक्खन जैसा भी हो सकता है। विरोध में मत खड़े हो, इतना काफ़ी है। और विरोध में खड़े होने के लिए बड़ा दुस्साहस चाहिए, बड़ा मूढ़ हठ चाहिए, क्योंकि जो सत्य के विरोध में खड़ा है, उसके सामने जीवन रोज़-ही-रोज़ उसकी मूर्खता के प्रमाण लाकर के रखेगा। उन प्रमाणों को अनदेखा करने के लिए बड़ी औंधी खोपड़ी चाहिए, बड़ा अंधा आदमी चाहिए।

वो प्रमाण ऐसे हैं कि अंधे को भी दिख जाएँ, वो प्रमाण ऐसे हैं कि बधिर भी सुन ले उन्हें। पूरा अस्तित्व तुम्हारे कानों में चिल्ला रहा है, उसकी चीख तुम्हारे बहरेपन से ऊँची है, तुम्हें सुनना होगा। और इतनी बार तुमको बात समझाई जा रही है कि तुम वज्र मूर्ख हो तो भी समझ में आनी निश्चित है। तो ये चमत्कार ही है कि बहुतों को समझ में आती कैसे नहीं, पर ऐसा होता है।

बहुतों के लिए सत्य, सीधी बात, जो प्रस्तुत प्रत्यक्ष है, वही दूर की कौड़ी हो जाते हैं। वो दूर की कौड़ी ऐसे हो जाते हैं कि वो शुरुआत ही निष्कर्ष से करते हैं। प्रमाण देखने की ज़रूरत क्या है यदि आपने फैसला पहले ही कर रखा है? निष्कर्ष पहले है, निष्कर्ष ये है कि, “मुझे तो अपने ही जैसा बने रहना है, मुझे तो अपने ही भीतर घूमते रहना है, अपने ही मन में कैद रहना है, अपने विचारों को, धारणाओं को, अपनी हस्ती को, अपने संसार को, बचाए रखना है। फैसला हो गया, अब सबूत हाज़िर करो।“

अब उन सबूतों का तुम करोगे क्या, या तो उनकी अवहेलना करोगे, या ऐसी पूर्वाग्रह-युक्त दृष्टि से उनको देखोगे, पढ़ोगे, कि कुछ का कुछ हो जाए।

तुम बीमार हो, तुमसे कहा जाए, “अस्पताल चलो”, तुम प्रमाण हाज़िर कर सकते हो कि, “नहीं, मुझे अस्पताल नहीं जाना, भर्ती नहीं होना।“ और प्रमाण तुमने क्या लाकर रखा, “इस अस्पताल से पिछले साल सौ लाशें निकली थीं।" और बात तुम्हारी बिलकुल ठीक है, अस्पताल में जितने लोग आए थे, उनमें से सौ ऐसे रहे जिनके प्राण नहीं बचे। वो इस हालत में आए थे कि चिकित्सा के लिए बड़ी देर हो चुकी थी।

तुमने कहा, "देखिए, ये अस्पताल थोड़े ही है, ये तो कतलखाना है। सौ लाशें निकली थीं यहाँ से, आप मुझे वहाँ भेज रहे हैं?”

ख़ैर, किसी तरह तुमको घसीट कर अस्पताल ले जाया गया। तुम्हें बिस्तर पर लिटा दिया गया। निष्कर्ष तुमने पहले ही निकाल रखा है कि, “मुझे उपचार कराना नहीं।" तुम्हें अब एक दूसरा साक्ष्य भी मिल गया, तुमने कहा, “पिछले साल जो सौ लाशें निकली थीं, वो सब-की-सब मरने से पहले बिस्तर पर ही लेटी थीं। ये बिस्तर खतरनाक है, इनसे सौ लाशें उठी हैं, और तुम मुझे इन्हीं बिस्तरों पर लिटा रहे हो। सौ में से ऐसा एक भी नहीं था जो बिस्तर पर लेटे बिना मरा हो। तुम देखो कि ये बिस्तर नहीं है, ये तो अर्थियाँ हैं, बिलकुल चिताएँ हैं। सौ में से सौ बार, मरने वाला मरते समय बिस्तर पर था, अब तुम देख लो कि कितना घातक बिस्तर है। और तुम इस बिस्तर पर लिटा कर के कहते हो कि मेरा उपचार हो जाएगा?”

अपनी दृष्टि में तुमने अकाट्य तर्क दे दिया। तुम देख ही नहीं रहे हो कि तुम्हारा तर्क सत्य की दिशा में नहीं है, सत्य के ख़िलाफ़ खड़ा है। तर्क का अपना कोई वजूद नहीं होता, तर्क को तो जिधर को तुम इस्तेमाल करना चाहो कर सकते हो।

असल में सत्य की तरफ चलने के लिए भी निष्कर्ष पहले ही निकाल लेना होता है। क्या है निष्कर्ष तब? तब निष्कर्ष ये है कि सत्य की दिशा चलना है। अब तर्क तुम्हारे काम आएगा। तर्क स्वयं तुम्हें कहीं भी नहीं ले जा सकता। तुम निर्धारित करते हो कि वो तुम्हारे काम आएगा या तुम्हें नुकसान दे जाएगा।

तर्क अच्छा है या बुरा, वितर्क है कि कुतर्क, ये जानने का तो बस एक ही तरीका है - वो सच के ख़िलाफ़ खड़ा है या सच की तरफ ले जा रहा है। कितना भी मज़बूत लगता हो तर्क, अगर तुम्हें अशांति की तरफ़ ले जाता हो, अंधेरे की तरफ ले जाता हो, तो जान लेना कि, "इसमें कोई खोट है, वो खोट मुझे अभी दिखाई नहीं दे रही, पर है ज़रूर, इस तर्क का मुझे समर्थन नहीं करना चाहिए।"

जो सत्य के पीछे चलते हैं उनके लिए सब सहज है, सरल है। जो मन, बुद्धि, तर्क, कारण के पीछे चलते हैं उनके लिए तो जीवन ही छुरे की धार है। बुद्धि पर चलकर सत्य तक नहीं पहुँचते, तर्क पर चलकर सत्य तक नहीं पहुँचते। सत्य प्रथम है, सत्य में स्थापित होते हैं तब बुद्धि सद्बुद्धि बन जाती है। बुद्धि, तर्क सत्य तक नहीं ले जाती है, सत्य का स्पर्श बुद्धि को सद्बुद्धि बना देता है। बुद्धि को सद्बुद्धि बनने के लिए सत्य आरंभ में चाहिए, बुद्धि का अंत नहीं है सत्य में, कि तुम कहो कि, “मैं बुद्धि का इस्तेमाल करके, बुद्धि की राह चलकर, अंत में सत्य तक पहुँच जाऊँगा”, ऐसा नहीं होगा। बुद्धि की शुरुआत होनी चाहिए सत्य से। तर्क की शुरुआत होनी चाहिए श्रद्धा से। अब तर्क ठीक बैठेगा, उसमें खुशबू रहेगी। पर तुम अगर श्रद्धाहीन हो, और तुम तर्क का इस्तेमाल करना चाहो तो ये तर्क तुमको बहुत भारी पड़ेगा, ये तर्क तुम्हारी अश्रद्धा को ही और गहरा कर देगा।

उपनिषद् हमसे कहता है कि ज्ञानियों की कृपा से, जानने वालों की अनुकंपा से सत्य सुलभ है, पर वो कृपा भी दूसरे स्थान पर है। पहले स्थान पर है कृपा को ग्रहण करने के प्रति तुम्हारी रज़ामंदी। कृपा वालों ने कृपा बाँध थोड़े ही रखी है, रोक थोड़े ही रखी है, तुम अपनी रज़ामंदी की परवाह करो। कृपा बरस रही है, तुम खोए कहाँ हुए हो?

चट्टान के नीचे रहने वाले क्षुद्र जीवों के लिए धूप कभी निकलती है क्या? गहरी अंधी गुफा में जिस मकड़ी का जाला है, उस मकड़ी के लिए कभी धूप, उजाला, सवेरा है? तुम अपनी बात बताओ, तुम्हारी रज़ामंदी है? सारी बात यहीं से शुरू है और यहीं पर खत्म है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नचिकेता तो हर प्रकार से सुपात्र हैं; जिस प्रकार से वो सत्य तक पहुँचते हैं, यम के पास खड़े हैं। लेकिन उनके लिए भी 'छुरी' और 'कठोर' शब्द का प्रयोग किया गया है, ऐसा क्यों?

आचार्य: * नचिकेता के लिए अति सरल है। किस बिंदु पर आपने उसे विचलित होते देखा? कठिन होता तो आप उसे विचलित होते, दुखी होते, इत्यादि पाते। कहाँ पाया आपने ऐसे?

प्र: लेकिन फिर उन्होंने नचिकेता को 'दुष्कर छुरी' क्यों कहा?

आचार्य: यम उसी पात्रता की परीक्षा कर रहे हैं जिसकी आपने अभी बात करी।

“सत्य छुरी की धार जैसा है”, ये सुनकर जो डर गया, उसे छुरी लग गई। वो छुरी लगती ही उनको है जो छुरी की धार से और वार से डरते हैं।

प्र: जिनके लिए छुरी समान है?

आचार्य: सत्य जिनके लिए छुरी समान है, उन्हें काट देता है। इसीलिए बस बात यहीं पर आकर रुकती है, “तुम कौन हो?” तुम जहाँ खड़े हो, सत्य तुम्हारे लिए वैसा ही है।

संतों के वचन, दुर्जनों को देखा है न, कैसे तीर से चुभते हैं? कल्पना में कुछ वैंपायर-बैट्स होते हैं, उन पर प्रकाश पड़ जाए तो वो जल उठते हैं। तो सत्य वचन बहुत लोगों पर वैसे ही पड़ते हैं, बात सुनी नहीं कि जलना शुरू हो गया। संसार, बाज़ार, वो सब झेल लेंगे, पर जैसे ही ब्रह्मवाक्य कान में पड़ेगा, वो बिलकुल चौंक जाएँगे, “किसने किया आक्रमण? कौन है?” उठ कर भागेंगे या हथियार निकाल लेंगे, कि, “मुझपर आक्रमण हो रहा है, मुझे जवाब देना है।"

सूरज की रोशनी सूरजमुखी के फूल को खिला देती है, और सूरज की ही रोशनी कुछ कीड़े-मकौड़ो को मार देती है। जाड़े आ रहे हैं, रज़ाइयों को धूप दिखाई? दिखाई कि नहीं अभी? आपको धूप पड़ेगी आपको विटामिन-डी मिलेगा। शरीर विटामिन-डी को सोखता ही धूप की उपस्थिति में है। और रज़ाई में जो कीटाणु बैठे हुए हैं, उन पर धूप पड़ेगी तो?

तो सत्य कैसा है? कैसा भी नहीं है, इस पर निर्भर करता है कि तुम कौन हो। जीव हो तुम, तो लाभप्रद है, और विषाणु हो, तो मौत समान है !

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